हम भारतीय आजादी की सत्तरवी वर्षगांठ मनाने की
तरफ बढ़ रहे है, लेकिन हकीकत में हम तमाम तरह की कुरीतियों से आजादी पाने में हम
अब भी विफल रहे है जिसका कारण हमारा लापरवाह और शिथिलता पूर्ण रवैया रहा है। हम
आजाद भले ही हो गये हो परंतु हमारे राष्ट्र की बुनियाद मासुम बच्चे अनवरत कुपोषण,
अशिक्षा, मानव तस्करी के गहरे दलदल में फंसते जा रहे है । विश्व बैंक के आकड़ों के
मुताबिक भारत में लगभग 70%
बच्चे रक्तालाप संबंधित बीमारियों से पीड़ित है। हर तीसरे में से एक बच्चा अल्प
भार से ग्रसित है और इस सबका कारण कुपोषण है । बाल शिक्षा की तरफ ध्यान तो शायद ही
सरकारों का जाता है कारणश अधिकांश बच्चे स्कूल जाने के इतर भीख मांगने , मजदूरी
करने की ओर रुख कर लेते है। बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के
कन्वेंशन के अनुच्छेद 24(2) के अनुसार राज्य सरकारों को कुपोषण एंव अन्य रोगों से
बचाने एंव स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने के लिए प्रतिबद्धता का निर्देश दिया गया था
लेकिन सरकार का शैशव तथा अनुत्तरदायी रुख स्थिति को भयावह बनाता जा रहा है। महिला
एंव बाल कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2015 में कुल 19,223 महिलाओं
और बच्चों की तस्करी की गई। हाल ही में भारत के 5 राज्यों में चुनाव संपन्न हुए
किसी भी एक रैली में बाल शिक्षा, बाल मजदूरी संबंधी एक भी घोषणा नहीं की गई। सवाल
यह है कि लोकतंत्र के इस विशाल पर्व में बच्चों पर अमूमन ध्यान इसलिए नहीं जाता
क्योंकि वे वोटर नहीं है ?
चुनावी आपाधापी में हम अपने ही बच्चों का हाशिए पर रखते जा रहे है जो कल के
नवनिर्मित राष्ट्र की बुनियाद बनेगें? नरसिंह राव के शासनकाल में
देश ने ऐसे संलेख पर हस्ताक्षर किए जिसमें 18 वर्ष की आयु तक अनिवार्य
शिक्षा और बाल श्रम से मुक्ति की बात कही गई थी पर यह अब तक संभव नहीं हो पाया।
स्मार्ट सिटी बनाने में कोई हर्ज नहीं है पर पहले राष्ट्र का आधार मजबुत किया जाना
चाहिए प्राथमिक शिक्षा पर जोर देना चाहिए गांव के स्कूल, विद्यालय कम रसोईघर
ज्यादा बन गये है । राजनीतिक एजेंडे में बच्चों का रखा जाना अति आवश्यक है ।
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